चोटी की पकड़–32
आठ
पुरानी कोठी के सिपाहियों के अफसर जमादार जटाशंकर सिंहद्वार पर रहते हैं। पलटन में हवलदार थे। ब्रह्मा की लड़ाई के समय नाम कटा लिया। जवान अच्छे तगड़े। नौकरी ढूँढ़ते-ढूँढ़ते यहाँ आए। निशाना अच्छा लगाते हैं। राजा ने रख लिया। खुशामद करने में कमाल हासिल, तरक्की कर गए।
कोठी के सामने पुराना फव्वारा है। अब नहीं चलता। चारों तरफ से पक्का होज। दीवार पर बैठे थे। मुन्ना गुजरी।
दोनों ने एक-दूसरे को देखा। मुन्ना ने छींटा जमाया, "एक घोड़ा फेर रही हूँ।
"वाह रे मेरे सवार ! कौन घोड़ा?"
"एक हिंदुस्तानी घोड़ा है।"
जमादार जटाशंकर झेंपे। गुस्सा आया। पर सँभलकर कहा, "और घोड़ी बंगाली है?"
मुन्ना को भी बुरा लगा। बदलकर कहा, "जब हमसे बातचीत करो, रानी समझकर करो।"
जटाशंकर सकपका गए। क्रोध में आकर कहा, "क्या कहा?"
"कह रही हूँ, तुम्हारी नौकरी नहीं रहेगी। पहले रानीजी की सलामी दो।" तिनककर मुन्ना ने कहा।
जटाशंकर ने रानीजी की सलामी दी। फिर ताव में आए। कहा, "मैं राजा हूँ, राजा की सलामी दे।"।
"तुम गँवार हो," मुन्ना ने कहा, "मैं रानी हूँ, रानी; रानी राजा को सलामी देती हैं? जवाब में चूमती हैं। तुम मुझको चूमो।"